लेखिका : मधु धामा
मूल्य : 199 रुपए
सीता का जीवन त्याग, धैर्य और समर्पण का प्रतीक है। उनकी निष्ठा, प्रेम और त्याग, वैदिक धर्म में महिलाओं के लिए एक आदर्श उदाहरण माना जाता है। प्रवाह की भावना, जनमानस में आज तक सीता का मूक स्वरूप विद्यमान है। सौम्यस्वरूपा आज्ञाकारी पुत्री का, जो बिना तर्क-वितर्क या प्रतिरोध किए पिता का प्रण पूर्ण करने हेतू या पुत्री धर्म के निर्वाह हेतू उस किसी भी पुरुष के गले में वरमाला डाल देती है, जो शिव के विशाल पिनाक पर प्रत्यंचा का संधान कर देता है। उस समर्पिता, सहधर्मिणी या सह-गामिनी पत्नी का जो सहजभाव से राज्य सुख तथा वैभव त्यागकर पति राम की अनुगामिनी बनकर उनके संग चल देती है, चुनौती भरे वन्य जीवन के दुखों को अपनाने। वह एक राजकुमारी थी, चाहती तो राम के वन जाने के समय अपने मायके भी आ सकती थी। राजसी सुख भोग सकती थी या फिर अयोध्या में ही रह सकती थी, उसे वनवास थोड़े ही मिला था, वनवास तो केवल श्री राम को मिला था। सीता जी के चरित पर कई ग्रन्थ लिखे गए हैं, अधिकांश में उन्हें जगजननी या देवी मानकर पूजनीय बनाया गया है। किन्तु मानवी मानकर उनके मर्म के अन्तःस्तल तक पहुँचने, उनके मर्म की थाह लेने की चेष्टा न के बराबर की गई है। उनके प्रति किए गए राम के सारे निर्णय को उनकी मौन स्वीकृति मानकर राम की महानता, मर्यादा तथा उत्तमता की और महिमामंडित किया गया है। क्या वास्तव में ऐसा था? क्या सीता जी के साथ अन्याय हुआ? क्या सीता जी ने रावण वध के बाद एक और वनवास मूक स्वीकृति के साथ स्वीकारा? वह चाहती तो तब भी अपने मायके जा सकती थीं, मगर क्यों न गई? क्या उनके अंदर प्रतिरोध के स्वर का अभाव था? क्या उनका अंतस संवेदनशून्य था या उन्हें हर्ष-विषाद तथा शोक-संताप नहीं व्याप्तता था? और क्या हर स्थिति और परिस्थिति को उन्होंने स्वीकार लिया था, शिरोधार्य कर लिया था बिना प्रतिवाद के… दर्जनों आकर्षक चित्रों के साथ आत्मकथा के रूप में लिखा गया यह उपन्यास ऐसे ही अनेक प्रश्नों का संधान है।
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